माहवारी एक ऐसा शब्द, जिसे सुनकर सभ्य समाज के लोग बगलें झांकने लगते हैं। न जाने क्यों लोग इस पर बात करते हुए असहज हो जाते हैं। आज के दौर में जब स्त्री विमर्श और तथाकथित फेमिनिस्ट तबका, जो महिलाओं के उत्थान की बात करता है, वह भी इस विषय पर चुप्पी साधना ही ठीक समझता है। आज के इस डिजिटल युग में जब महिलाएं हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं, तब भारत के अनेक हिस्सों में माहवारी को लेकर कई प्रकार की कुप्रथाएं आज भी जिंदा हैं। कहीं इन दिनों महिलाओं को किचेन में नहीं घुसने दिया जाता, कहीं मंदिरों में इनका प्रवेश वर्जित है। कहीं-कहीं तो मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को घर के एक बाहरी हिस्से में रहना पड़ता है।
महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान अपवित्र समझने की इस मानसिकता ने कब जन्म लिया, पता नहीं, लेकिन सनातन धर्म की बात करें तो यहां हमेशा से ही मासिक धर्म अपरोध बोध का नहीं, बल्कि एक उत्सव का विषय रहा है। यही वह प्रक्रिया है, जिसके बाद कोई बालिका युवती के रूप में बदलती है और उसमें मां बनने की क्षमता विकसित होती है। शायद आप जानते ही होंगे कि गुवाहाटी स्थित मां कामाख्या के मंदिर में मासिक धर्म एक पर्व की तरह मनाया जाता है। यहां प्रतिवर्ष अम्बुवाची मेले का आयोजन किया जाता है और मान्यता है कि इन दिनों देवी का मासिक धर्म होता है। इस अवसर पर देश-विदेश से लाखों सैलानियों और अघोरियों का यहां जमघट होता है।
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बहरहाल, ऐसे में जब हर कोई इस विषय पर बात करने के मुकाबले आंखें बचाकर निकल जाना ही उचित समझता हो, ऐसे में एक युवा कवयित्री दामिनी यादव की कविता ‘माहवारी’ कई सालों पहले सोशल मीडिया के ज़रिये सामाजिक पटल पर आई तो इसने लोगों के सामने प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। ये अलग बात है कि इस कविता को पढ़कर अलग-अलग वर्गों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही, जिनमें प्रशंसा और आलोचना के मिले-जुले स्वर थे। कुछ लोग ने इसे अश्लीलतम कह कर खारिज किया, लेकिन दामिनी यादव की कविता की तेज़ धार आपके मन और मस्तिष्क के तारों को देर तक झंकृत करेगी। स्पाइडी डॉट इन में हम आपके साथ साझा कर रहे हैं दामिनी यादव की इसी कविता, माहवारी को।
माहवारी
आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रुलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नज़रों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज़ लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं,
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता है,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमज़ोरी पर जाती है
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीस्पर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख़्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेज़ी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में ख़रीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी, क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गड़ी थीं
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज़-नख़रे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं,
जब नौ महीने बाद
अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं,
इसलिए अरे ओ मर्दो,
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।