कहा जाता है कि सपनों का कोई तयशुदा रास्ता नहीं होता। सच तो यह है कि तयशुदा तो क्या सपनों का तो कोई रास्ता ही नहीं होता। हां, मगर मंज़िल होती है। इस मंज़िल तक जाने के लिए जिस दिशा में दृढ़ निश्चय के साथ पांव रख दिए जाते हैं, वही एक रास्ते में बदलता चला जाता है। फिर जब उसी कदम-दर-कदम से तय होते फ़ासले औरों से दूर और अपने नज़दीक इस तरह से ले आते हैं कि अपने दिल की बात ज़माने की आवाज़ बन जाती है तो उसी मुक़ाम को हम एक ‘मंज़िल’ की ताबीर मान लेते हैं। कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा है, हिंदी की लेखिका गीतांजलि श्री (Geetanjali Shree) की कृति ‘रेत समाधि’ के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टूंब ऑफ सैंड’ को इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ मिलने की ख़बर पाकर।

तीन दशकों से हिंदी साहित्य में अपना सक्रिय योगदान दे रहीं गीतांजलि श्री एक ख़ामोश मिज़ाज लेखिका हैं। उनका पहला उपन्यास ‘माई’ 1990 के दशक में आया था और उसके बाद आई अगली औपन्यासिक कृति ‘हमारा शहर उस बरस’। इसके बाद हिंदी के साहित्यिक पटल पर अपनी जगह भरी, ‘तिरोहित’ और ‘ख़ाली जगह’ ने।
हमने गीतांजलि श्री को ख़ामोश मिज़ाज लेखिका इसलिए कहा, क्योंकि तीन दशक तक हिंदी साहित्य में लेखन के बावजूद वे शांति से, बिना वाद-विवाद का हिस्सा बने सक्रिय हैं, लेकिन उनकी लेखनी इतनी मुखर है कि मौजूदा इंटरनेशलन बुकर प्राइज़ से पहले भी वे अपने उपन्यास ‘माई’ के अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए ‘क्रॉसवर्ड अवॉर्ड’ के लिए नॉमिनेट हो चुकी हैं।
गीतांजलि श्री के लेखन में एक तरह की सहजता है। एक ऐसी सहजता, जो घट चुकी घटनाओं को भी नए सिरे और नए नज़रिये से देखने की सलाहियत देती है। इस सहजता में जब स्त्री की भावप्रबल आंखें जुड़ जाती हैं तो देखे गए नज़ारों के भी अर्थ बदल जाते हैं। जैसाकि इस बार ‘रेत समाधि’ के साथ हुआ है। इस उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टूंब ऑफ सैंड’ के नाम से किया है, मशहूर अनुवादक डेज़ी रॉकवेल ने। दिलचस्प बात यह है कि डेज़ी रॉकवेल खुद भी एक चित्रकार हैं, लेखिका हैं, अनुवादक हैं । लिहाज़ा माना जा सकता है कि अगर गीतांजलि श्री की इस भावप्रवण कृति के अनुवाद के साथ पूरा इंसाफ़ हुआ है तो इसका श्रेय बहुत हद तक डेज़ी रॉकवेल के अपने भाव-समृद्ध अनुवाद को भी जाता है।
यहां इस बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता कि एक भाषा से किसी दूसरी भाषा में अनुवादों के साथ अक्सर मूल आत्मा अक्सर दम तोड़ती दिखाई देती है, क्योंकि एक अच्छा अनुवाद खुद अपने-आप में किसी कृति से कम नहीं होता। हिंदी के कई शीर्षस्थ लेखकों की कृतियों के अनुवाद को भी ये दुर्भाग्य झेलना पड़ा है। अनुवाद संबंधी सार्थकता का यह अन्याय राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी से लेकर कमलेश्वर तक एक लंबी क़तार को सहना पड़ा है। फिर भी एक अच्छे अनुवाद का उनका इंतज़ार ख़त्म नहीं हुआ और वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने उतने पाठक नहीं जुटा पाए, जितने के वे हक़दार थे।
गीतांजलि श्री की कृति को एक समर्थ अनुवादक मिली, जिसने उनके द्वारा गढ़े गए पात्रों को पूरी जीवंतता के साथ हिंदी से इतर भाषा के साहित्यिक संसार के सम्मुख रख दिया।
ग़ौरतलब है कि गीतांजलि श्री का यह उपन्यास ‘रेत समाधि’ उस विषय-वस्तु पर लिखा गया है, जिस पर पहले भी कई कलमकार कलम चला चुके हैं। एक अस्सी वर्षीय वृद्ध महिला के जीवन पर आधारित यह उपन्यास उत्तर भारत की पृष्ठभूमि लिए हुए है। धर्म, जाति, देश और लिंग को समेटे यह उपन्यास अपने में कई तथ्य भी जुटाए है, जिनके जवाब इतिहास भी नहीं दे पाया। सबसे खूबसूरत बात इस उपन्यास की यह है कि यह एक ऐसे समय को बिल्कुल ही अलहदा नज़रिये से पेश करता है, जिसे हमेशा एक ही तरह के नज़रिये से देखने की आदत रही है, पाठकों की भी और अधिकांश लेखकों की भी।
यही बात इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ से जुड़ी ज्यूरी ने भी कही। उनका कहना था कि ‘टूंब ऑफ सैंड’ इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार जीतने वाली किसी भी भारतीय भाषा में मूल रूप से लिखी गई पहली किताब है। इसके अलावा ज्यूरी को इस बात पर भी सुखद आश्चर्य था कि जिस त्रासदी को हमेशा गंभीरता से ही पेश किया जाता रहा है, उसे देखने का एक दूसरा नज़रिया भी हो सकता है। भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया ये एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें अगर दर्द का एहसास है तो चुलबुलापन भी है। ज़ाहिर है, ऐसा होना ही था, क्योंकि यह एक औरत की नज़र से देखा गया और एक औरत की कलम से कहा गया उपन्यास है।
इसके अलावा इस उपन्यास में उस थर्ड जेंडर की दुनिया की कई परतें खोलने की कोशिश भी है, जो कि हमेशा एक रहस्य के आवरण से देखा-समझा जाने वाला विषय रहा है।
पुरस्कार समारोह में अपने धन्यवाद ज्ञापन के दौरान गीतांजलि श्री ने कहा, “मैंने कभी बुकर पुरस्कार जीतने की कल्पना नहीं की थी। कभी सोचा ही नहीं कि मैं ये कर सकती हूं। ये एक बड़ा पुरस्कार है। मैं हैरान हूं, प्रसन्न हूं और बहुत कृतज्ञ महसूस कर रही हूं।
इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार की इस बार की दावेदारी में पांच और किताबें भी शामिल थीं, लेकिन इस बार बारी थी, इस पुरस्कार के लिए हिंदी साहित्य की दावेदारी का इंतज़ार ख़त्म होने की।
इस पुरस्कार के अंतर्गत दी जाने वाली लगभग पचास लाख रुपये की राशि लेखिका और अनुवादक के बीच बराबर बांटी जाएगी।
हिंदी साहित्य के लिए यह ख़ुश होने का समय है। सिटीस्पाइडी की तरफ से लेखिका गीताजंलि श्री को बहुत-बहुत मुबारकबाद!