सांस्कृतिक विरासत और लोककथाओं से सराबोर दिल्ली की बावड़ियां

ये बावड़ियां सिर्फ़ पानी का स्रोत होने भर का ही नहीं, बल्कि एक और बड़े उद्देश्य, यानी सांस्कृतिक महत्व को भी पूरा करती आई हैं।

घुमक्कड़ी न्यूज़ संस्कृति

ये बावड़ियां सिर्फ़ पानी का स्रोत होने भर का ही नहीं, बल्कि एक और बड़े उद्देश्य, यानी सांस्कृतिक महत्व को भी पूरा करती आई हैं।

कुछ वर्ष पहले मैं दिल्ली के उत्तरी हिस्से में बाड़ा हिंदूराव अस्पताल के परिसर के एक भीतर एक बावड़ी पर गया था। जहां उस बावड़ी को देखते हुए मुक्तिबोध द्वारा लिखी गई कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ की कुछ पंक्तियां मेरे दिमाग में कौंध गईं!

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी
ठंडे अंधेरे में
बसी गहराइयां जल की
सीढ़ियां डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।

इस कविता में मुक्तिबोध ने एक बावड़ी का वर्णन किया है। मुझे भी अपने सामने स्थित बावड़ी ब्रह्मराक्षस कविता में वर्णित बावड़ी की तरह ही महसूस हुई। वैसी ही गहरी, उजाड़ रहस्यमय, जगह-जगह से उखड़ी, जिस पर बीतते वक़्त के साथ वनस्पति उग आई थी। यह एक अशुभ और अनिष्ट का अनुभव सा प्रतीत होता था। मुझे लगा कि जैसे धीरे-धीरे इस बावड़ी ने मुझ पर कब्ज़ा सा कर लिया है और अब मेरी कल्पनाओं को हवा दे रही है। मुझे लगने लगा कि ब्रह्मराक्षस जैसी रहस्यमय आकृतियां वहां निवास कर रही हैं और क्रोधित हो वे रहस्यमय मंत्रों का सस्वर पाठ कर रही हैं।
यही मेरी बावड़ियों के शहर दिल्ली को फिर से खोजने की शुरुआत थी।

दिल्ली और उसके आस-पास सैंकड़ों ऐसी इमारतें और स्मारक हैं, जो हमारे अतीत को प्रतिध्वनित करते हैं, जिनमें से कुछ प्रभावशाली दिखते हैं और लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं, जबकि कुछ टूट गए हैं, कुछ उखड़ रहे हैं और कुछ दिल्ली और उसके आस-पास की बढ़ती आबादी के बीच दब के रह गए हैं और शायद ही कभी किसी का ध्यान उन पर जाता हो। इन्हीं सब के बीच मौजूद हैं, अतीत की एक ख़ास धरोहर, जिन पर अक्सर किसी का ध्यान नहीं जाता, वह है दिल्ली की बावड़ियां। एक ज़माने में इन बावड़ियों में पानी से कहीं ज़्यादा था उस वक्त का इतिहास। दिल्ली ने सत्ता और सभ्यताओं के कई ऐतिहासिक बदलाव देखे हैं। दिल्ली में जगह-जगह बनीं ये बावड़ियां उसी का परिणाम हैं।

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बावड़ियां वर्षा जल को संरक्षित करने और लोगों को भूजल उपलब्ध कराने का हमारा एक पारंपरिक साधन था। जहां-जहां लोगों ने बसना शुरू किया, नए शहर बसे, किले बने, साथ ही वहां बावड़ियों का निर्माण भी हुआ।

RK Puram Baoli

दिलचस्प बात यह है कि ये बावड़ियां विभिन्न आकृतियों और आकारों में होती थीं, जो उनकी भौगोलिक स्थिति, भूमिगत जल की गहराई और उनके बनाए जाने के मूल उद्देश्य पर निर्भर करती थीं। ये बावड़ियां अतीत के लोगों के उन्नत निर्माण कौशल और वास्तुशिल्प का अद्भुत नमुना थीं।
इन बावड़ियों का निर्माण विभिन्न स्थापत्य कलाओं और परम्पराओं को भी प्रतिबिंबित करता था। एक बावड़ी की स्थापना में मुख्य रूप से तीन तत्व होते थे। कुआं, जिसमें पानी इकट्ठा किया जाता, कई मंजिलों के माध्यम से भूजल तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां और मध्यवर्ती मंडप।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये बावड़ियां सिर्फ़ पानी का स्रोत होने भर का ही नहीं, बल्कि एक और बड़े उद्देश्य, यानी सांस्कृतिक महत्व को भी पूरा करती आई हैं। पुराने समय में वे सामाजिक मिलन स्थल भी थीं। वे आमतौर पर सामुदायिक स्थल की तरह भी होते थे, जहां दूर-दराज़ के यात्री आकर कुछ देर के लिए रुकते, आराम करते या रात भर ठहरकर सुबह अपनी राह हो लेते थे।
यात्रियों ने गर्मी की दोपहर के दौरान अपने दिन को बिताने के लिए इतना उपयोग किया, स्थानीय निवासियों ने पानी की समस्या से बचने के लिए और बच्चों ने पानी की टंकियों में मस्ती करने का ठिकाना ढूंढ़ लिया था।
शहर के अनियोजित विकास के तहत कुछ वर्षों में इनमें से कई बावड़ियों को मिट्टी से भर दिया गया और नए-नए आधुनकि निर्माणों के चलते ये ऐतिहासिक बावड़ियां इतिहास के पन्नों में ही सिमटकर रह गईं।
दिल्ली के गिरते जलस्तर और वर्षा जल का ठीक से संचयन न होने के कारण, जो बावड़ियां भरने से बची रह गई थीं, वे भी करीब-करीब सूख ही गईं। हां, मगर वक़्त के साथ भी जो बात नहीं सूखी, नहीं मिटी, वह है इनमें सांस लेता, आज भी ताज़ा हमारा बीता इतिहास। अगर आप भी इतिहास को वर्तमान की नज़र से देखना चाहते हैं तो इन बावड़ियों का रुख़ करना न भूलिएगा। शायद आप इनमें कुछ ऐसा पा जाएं, जो आज की किसी समस्या का हल बीते कल की इन सांस्कृतिक धरोहर में छिपा हो।

वे बावड़ियां जहां आप जा सकते हैं-

गंधक की बावड़ी, राजों की बावड़ी (दोनों महरौली में हैं), अग्रसेन की बावड़ी (के जी मार्ग, कनॉट प्लेस के पास), हिंदूराव अस्पताल की बावड़ी, फिरोजशाह कोटला की बावड़ी और पुराने किले की बावड़ी दिल्ली की कुछ प्रसिद्ध बावड़ियां हैं।
इनके अलावा कुछ बावड़ियां और भी हैं, जिनके बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं है। इनमें द्वारका में हाल ही में खोजी गई बावड़ी, आरकेपुरम के सेक्टर 5 में स्थित बावड़ी और तुग़लकाबाद किले
की विशाल बावड़ी।

महरौली, जिसका शुमार दिल्ली की सबसे पुरानी बस्तियों में किया जाता है, यहां भी दो प्रमुख बावड़ियां हैं। गंधक की बावड़ी और राजों की बावड़ी।
गंधक की बावड़ी का निर्माण 13वीं शताब्दी में इल्तुतमिश के शासनकाल के दौरान चिश्ती संप्रदाय के बहुत सम्मानित सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की सेवा के लिए किया गया था। इसका नाम गंधक की बावड़ी होने के पीछे कारण यह था कि इस बावड़ी के पानी से गंधक की महक आती थी। यह एक आयताकार बावड़ी है और तुलनात्मक रूप से छोटी है। वर्तमान में इसकी हालत काफी खराब है और यह अक्सर कचरे से भरी रहती है। हालांकि 2004 में एएसआई द्वारा कुछ गाद निकाले जाने के बाद इसमें कुछ पानी मिला था। हालांकि आजकल इस बावड़ी को देखने कोई नहीं आता।
इस बावड़ी से 100 मीटर की दूरी पर ही राजों की बावड़ी स्थित है, जिसका निर्माण 1506 के आस-पास लोधी राजवंश द्वारा करवाया गया था। यह एक आयताकार और पांच मंजिला संरचना है, जो अभी भी काफी बेहतर स्थिति में है।

Rajon ki Baoli

निजामुद्दीन दरगाह की बावड़ी (Nizamuddin Dargah Baoli)

Nizamuddin Dargah

निजामुद्दीन दरगाह की बावड़ी दिल्ली की सबसे प्रसिद्ध बावड़ियों में से एक है। हालांकि इसकी स्थापत्य कला कुछ विशेष नहीं है। यह एक साधारण आयताकार संरचना ही है, जिसमें अब भी कुछ पानी बचा हुआ है। लगभग 800 साल पुरानी इस बावड़ी से जुड़ी एक कहानी काफ़ी मशहूर है, जो इस बावड़ी को भी
प्रसिद्ध बनाती है। कहा जाता है कि एक बार दिल्ली के शासक गयासुद्दीन तुगलक ने निजामुद्दीन औलिया को अपने दरबार में आने का हुक्म दिया, जिससे उसकी प्रतिष्ठा में इजाफा हो, लेकिन औलिया साहब के इंकार के बाद गयासुद्दीन तुगलक निजामुद्दीन औलिया से ख़फ़ा हो गया था। जब निजामुद्दीन औलिया ने एक बावड़ी बनाने का निर्णय किया तो निर्माण से जुड़े सभी श्रमिकों को गयासुद्दीन तुगलक ने तुगलकाबाद किले में नियुक्त कर दिया और बावड़ी के निर्माण के लिए किसी को भी नहीं छोड़ा। औलिया साहब को जब यह बात पता चली तो उन्होंने बावड़ी का निर्माण कार्य रात को चालू रखने का फैसला किया, क्योंकि दिन में सभी श्रमिक तो किले में कार्य कर रहे थे। जब यह समाचार तुगलक को मिला तो उसने दीया जलाने के लिए आवश्यक तेल की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा दिया। तब निजामुद्दीन औलिया ने अपने शिष्य को पानी का उपयोग करके दीपक जलाने का निर्देश दिया और बावड़ी का निर्माण कार्य जारी रखा। पानी से दीया जलाने वाले औलिया साहब के शिष्य बाद में प्रसिद्ध चिश्ती संत चिराग़ देहलवी बनें।

आज निजामुद्दीन दरगाह के पास स्थित इस बावड़ी पर इतना अधिक अतिक्रमण है कि दरगाह परिसर में आए अधिकतर लोग इसे देख पाने में विफल रहते हैं, क्योंकि इसके चारों ओर निर्माण हो गया है। इस बावड़ी में अभी भी कुछ पानी है, जो मानसून के दौरान बढ़ जाता है और स्थानीय बच्चे दिन के समय इस पानी में तैरते, गोता लगाते और खिलखिलाते हुए देखे जा सकते हैं।

फिरोजशाह कोटला बावड़ी (Firojshah Kotla Baoli)

फिरोजशाह कोटला के मध्य में स्थित बावड़ी वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। यह प्रभावशाली मेहराबों वाली एक गोलाकार तीन मंजिला, गहरी बावड़ी है, परंतु कुछ अप्रिय घटनाओं के चलते वर्तमान में यह बंद है।

हिंदूराव की बावड़ी (Hindu Rao Baoli)

Hindu Rao Baoli

देखने में यह बावड़ी काफी रहस्यमय सी लगती है। जगह-जगह से टूटी हुई और कई जगह उगी वनस्पतियों से घिरी। चारों ओर को ढहती, मलबे सी लगती दीवारें! यह वही बावड़ी है, जिसने मुझे मुक्तिबोध की प्रसिद्ध हिंदी कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ की पंक्तियों की याद दिला दी थीं।
अब इसे बंद कर दिया गया है, लेकिन फिर भी चारदीवारी से झांक कर इसे देखा जा सकता है। इस बावड़ी के 193 मीटर लम्बी सुरंग के प्रमाण भी मिलते हैं। यह सुरंग किस लिए बनाई गई, इसे लेकर भी कई प्रकार की अटकलें हैं। मानसून के दौरान यह बावड़ी पानी से भर जाती है।

अग्रसेन की बावड़ी (Agrasen Ki Baoli)

Credit: CitySpidey

अग्रसेन की बावड़ी दिल्ली की सबसे प्रसिद्ध बावड़ियों में से एक है। इसका कई बार जीणोद्धार हुआ और यह ठीक प्रकार से संरक्षित है। इसकी लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह है कि यह दिल्ली के केंद्र कनॉट प्लेस की ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच है।
प्रसिद्ध फोटोग्राफर रघुराय ने साल 1971 में इस बावड़ी की कुछ ब्लैक एंड व्हाइट फोटो ली थीं, जो काफी प्रसिद्ध हुईं। इस तस्वीर में बावड़ी पानी से भरी हुई है और एक युवक इस बावड़ी में छलांग लगा रहा है।

द्वारका की बावड़ी (Dwarka Ki Baoli)

Dwarka Baoli
Credit: Tripadvisor

हाल ही में द्वारका के सेक्टर 12 में 16वीं सदी के लोदी युग की एक बावड़ी के बारे में पता चला है। यह बावड़ी मलबे के नीचे दबी हुई थी और जंगली वनस्पतियों और पेड़ों से घिरी हुई थी। जब एक डीडीए आवासीय क्षेत्र के पास खुदाई का काम चल रहा था, तभी इस बावड़ी के बारे में पता चल पाया। इस
बावड़ी के मिलने से स्थानीय लोगों में काफी उत्साह है। यह लोदी काल की वास्तुकला का विशिष्ट नमूना है। इस बावड़ी में सीढ़ियों के साथ-साथ मेहराब के दो स्तर स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।

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